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Thursday, June 1, 2023
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गुरु शशधर आचार्य ने पांच साल की उम्र से ही सीखा छऊ, हुए पद्मश्री सम्मान से सम्मानित, आइये जाने कैसी मिली उनकी कला को पहचान

एक सफल इंसान अपने आप को सफल बनाने के लिए कड़ी मेहनत करता है। क्योंकि मेहनत के बिना इन जीवन में कुछ भी हासिल नही किया जा सकता।

आज हम आपको झारखंड के सरायकेला के रहने वाले छऊ गुरू श्री शशधर आचार्य के बारे में बताएंगे जिन्होंने झारखंड के छऊ नृत्य को भारत सहित 50 से अधिक देशों में एक अनूठी पहचान दिलाई है। उन्हें भारत सरकार ने पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया है। आइये जानते हैं उनके बारे में।

बचपन से नृत्य से लगाव

झारखंड के सरायकेला में जन्में छऊ गुरु शशधर आचार्य के पूर्वज ओडिशा के रहने वाले थे। लेकिन 16वीं शताब्दी में सिंहभूम के राजा उनके पूर्वज पुरुषोत्तम आचार्य को सरायकेला लाए थे। उसके बाद राज परिवार के संरक्षण में छऊ को आगे बढ़ाने में लोगों ने योगदान दिया। श्री शशधर जब पांच वर्ष के थे तभी से वो इस नृत्य कला से जुड़ गए थे। वो 5 वर्ष की उम्र से ही छऊ नृत्य कर रहे हैं।

प्रारंभिक शिक्षा पिता से मिली

उन्होंने छऊ की प्रारंभिक शिक्षा अपने पिता लिंगराज आचार्य से ग्रहण की। इसके बाद उन्होंने पद्मश्री सुधेंद्र नारायण सिंहदेव व केदारनाथ साहू के अलावा गुरु विक्रम कुंभकार व गुरु वनबिहारी पटनायक से भी छऊ नृत्य की शिक्षा हासिल की थी। छऊ नृत्य कला को आगे बढ़ाने और गुरुकुल नृत्य अकादमी और फिर मुंबई के पृथ्वी थिएटर में काम करने के लिए श्री शशधर आचार्य जी ने 1990 की शुरुआत में सरायकेला छोड़ दिया था।

बिखेर चुके है कला का जादू

श्री शशधर आचार्य अपने छऊ नृत्य की कला को 50 से अधिक देशों में फैला चुके हैं। शशधर 50 देशों में छऊ नृत्य की कला का प्रदर्शन कर चुके हैं। वे दिल्ली के नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में छऊ की ट्रेनिंग देते हैं। साथ ही पुणे के नेशनल स्कूल ऑफ फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट में भी जाकर क्लास लेते हैं। शशधर आचार्य ने सरायकेला के इंद्रटांडी आचार्य छऊ नृत्य विचित्रा की स्थापना कर वहाँ बच्चों को छऊ नृत्य सीखाते है। ग्रामीण क्षेत्र की कलाकारों को भी छऊ नृत्य सीखाने का कार्य करते है। छऊ गुरु के नाम से विख्यात श्री शशधर आचार्य जी 1990 से 1992 तक सरायकेला स्थित छऊ नृत्य कला केंद्र के निर्देशक भी रहे थे। फिलहाल अभी वो दिल्ली स्थित नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में विजिटिंग प्रोफेसर भी हैं।

ऐसे मिली कला को पहचान

छऊ पहले राज परिवार का पुश्तैनी नृत्य हुआ करता था। 1960 में सरायकेला के राजा आदित्य नारायण सिंहदेव ने चैत्र पर्व के जरिये इस कला को एक नई उड़ान दी थी। यह कला भारत ही नहीं, पूरे विश्व में भारतीय संस्कृति को दर्शा रही है। इस सम्मान से सरायकेला में छऊ नृत्य प्रेमियों के बीच खुशी का माहौल है। सरायकेला के कलाकार अपनी कला का नमूना देश ही नहीं विदेशों में भी प्रदर्शित कर चुके हैं।

पद्मश्री सम्मान से सम्मानित

छऊ नृत्य को देश-विदेश में अनूठी पहचान दिलाने के हेतु भारत सरकार ने छऊ गुरू श्री शशधर आचार्य जी को देश के चौथे सर्वोच्च सम्मान पद्मश्री से सम्मानित किया है। शशधर सरायकेला-खरसावां जिले के छऊ से जुड़े ऐसे सातवें कलाकार हैं, जिन्‍हें पद्म पुरस्‍कार मिला है। यही नहीं उन्हें पीएचडी चेंबर दिल्ली ने पीएचडी ऑफ आर्ट्स पुरस्कार से भी सम्मानित किया था। यह पुरस्कार 7 मई 2018 को भारत सरकार के सांस्कृतिक मंत्री डा। महेश शर्मा द्वारा दिल्ली में दिया गया था।

दूसरे जगहों से भी आते है लोग

झारखंड का सरायकेला-खरसावां जिला छऊ नृत्य का केंद्र है।कस्‍बाई शहर होने के बावजूद छऊ की वजह से सात समंदर पार तक इसकी ख्याति है। दरअसल, प्राकृतिक सुंदरता समेटे सरायकेला-खरसावां जिले की पहचान छऊ नृत्य के लिए ही है। यहां छऊ नृत्य सीखने दूसरे देश से भी कलाप्रेमी आते हैं, वहीं यहां के कलाकारों को दूसरे देशों से भी प्रदर्शन का बुलावा आता रहता है।

Medha Pragati
मेधा बिहार की रहने वाली हैं। वो अपनी लेखनी के दम पर समाज में सकारात्मकता का माहौल बनाना चाहती हैं। उनके द्वारा लिखे गए पोस्ट हमारे अंदर नई ऊर्जा का संचार करती है।
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